अधूरा अतीत लिखूँ
या संपूर्ण संभाव्य लिखूँ
जी चाहता है -तुम पर एक कविता नहीं
पूरा महाकाव्य लिखूँ|
ऐसा महाकाव्य जिसमें-
मुस्कान-मंदाकिनी अविरल अविराम
मंद मंद बहती हो,
कटाक्षों की कल-कल में
कमनीयता की कामायनी कहती हो|
ऐसा महाकाव्य जिसमें-
नयनों के नीलोत्पल
खिले हों मुखमंडल के मानसरोवर में,
और तैरते हों दंत-राजहंस
अधरों के अमृतसर में।
या धवल रूप हो जिसमें
चटकती शोख कली-सा,
या फिर गांभीर्य तुम्हारा गीतांजलि-सा,
सब कुछ कहकर भी मौन हो
हर प्रश्न अनुत्तरित रहे
हर उत्तर पूछे-तुम कौन हो ? तुम कौन हो ?
ऐसा महाकाव्य जिसमें-
आँखों के अथर्ववेद में
गूँजें मंत्रोच्चार, हों जादू-टोने,
सामवेद-सा सस्मित सौंदर्य तेरा
न हँसने दे, न रोने।
या केशराशि का विशाल काला वन हो,
हर एक बाल जैसे
सर्प लिपटा चंदन हो।
अंग अंग अभिसारिका,
भेदती हो दिल की द्वारिका।
ऐसा महाकाव्य जिसमें-
तेरे लावण्य के लाक्षागृह में,
प्यार पांडवों-सा फँस जाए,
दुरभिसंधि का मारा दिल
मरता हो पर हँस जाए,
या फिर
उर की उज्जयिनी में
किलोल करे कल्पना-कालिदास,
ऋतुसंहार का ऋग्वेद हो
और हों मेघदूत के संत्रास
ऐसा महाकाव्य जिसमें-
कटि की कैकेयी
दृष्टि-दशरथ को दहलाए,
मचल जाए मन-मंथरा,
शील के श्रीराम को वन भेजा जाए।
चाहता हूँ
भागीरथी-से तेरे पावन भुजबंधों में,
सगर के पुरखों-सा तर जाऊं,
अधूरा होकर भी संपूर्ण हो जो
महाकाव्य कुमारसंभव-सा पूरा कर जाऊं।