भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
स्थगन के बाद / संजय कुंदन
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:15, 10 जून 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=संजय कुंदन |संग्रह= }} <poem> अचानक जमा ...' के साथ नया पन्ना बनाया)
अचानक जमा होने लगते हैं रंगीन बादल
दिखाई पड़ते हैं कुछ प्रवासी पक्षी पंख फैलाए
एक नया मौसम उतरता है
ज़िन्दगी के एक ऐसे मोड़ पर
जब उकताहट और खीझ से लथपथ
आदमी नाक की सीध में चल रहा होता है
ख़ुद को घसीटते हुए
एक अधूरी प्रेमकथा में
फिर से लौटती है रोशनी
कुछ पुराने पन्ने लहलहा उठते हैं
फिर वहीं से सब कुछ शुरू होता है
जहाँ कुछ कहते-कहते काँप गए थे होंठ
और बढ़ते-बढ़ते रह गए थे हाथ
हवा अपने पैरों में बाँधने ही वाली थी घुँघरू
ज़मीन को छूने ही वाली थीं कुछ बूंदें
ख़त्म कुछ भी नहीं होता
स्थगन के बाद
न जाने कितनी बार जीवन लौटता है
इसी तरह अपनी कौंध के साथ ।