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मैंने दीवारों से पूछा / कविता वाचक्नवी

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चिह्नों भरी दीवारों से पूछा मैंने

किसने तुम्हें छुआ कब-कब

बतलाओ तो

वे बदरंग, छिली-खुरचीं-सी

केवल इतना कह पाईं

हम तो

पूरी पत्थर-भर हैं

जड़ से

जन से

छिजी हुईं

कौन, कहाँ, कब, कैसे

दे जाता है

अपने दाग हमें

त्यौहारों पर कभी

दिखावों की घड़ियों पर कभी-कभी

पोत-पात, ढक-ढाँप-ढूँप झट

खूब उल्लसित होता है

ऐसे जड़-पत्थर ढाँचों से

आप सुरक्षा लेता है

और ठुँकी कीलों पर टाँगे

कैलेंडर की तारीख़ें

बदली-बदली देख समझता

इन पर इतने दिन बदले।