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आगमन / प्रतिभा सक्सेना

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मिथिला की हरी-भरी हँसती धरती पर, है पडी हुई गहरी अकाल की छाया,
वर्षों से अनावृष्टि ने डेरा डाला, सरि-सर सूखे पशुओं की जर्जर काया!
धरती की छाती फटती बंजर होती वन वृक्ष रह गये सूखे कंकालों से
अति चिन्तित हो मिथिला-नरेश सीरध्ज, संपर्क साधते वृद्ध नगरवालों से!

वन कहाँ? नहीं है तृण भर भी हरियाली उडती उत्तप्त धूल फटता क्षिति का उर!
रह-रह काँपते अबाध उजाड़ हवा से झंखाड वृक्ष,बिखरे पशुओं के पंजर
धँसती आँखों में भरी हताश पिपासा, घर-बार छोड चल दिये लोग दल के दल,
हो गई बाँझ धरती है प्यास चतुर्दिक, है समाधान कोई न समस्या का हल!

मंत्रणा हुई कुलगुरु-वयवृद्ध जनों में कर सके समस्या का कोई प्रस्तुत हल,
जादू-टोने की चर्चा यज्ञ-हवन भी फिर तंत्र-मंत्र मेंखोज रहे थे संबल!
बस एक आस्था बची लोक में प्रचलित, जिससे कि गगन का अंतस्तल पिघलेगा,
जब पाँय-पयादे नृप रानी को ले कर खेतों मेंहल से सीतायें खीचेगा!

यह पर्व कि जब मिथिलापति हल जोतेंगे, हो प्रकृति प्रसन्न कामना पूर्ण करेगी,
जल बरसाएगे मेघ और यह धरती, आँचल भर-भर कर वह जीवन जल लेगी!
पुरजन उत्साहित हर्षित, एकत्रित थे, घट धरे शीष, नारियाँ सिंगार सजाये,
आगे आगे कन्यायें अरघ दिलातीं, फिर मार्ग दिखातीं होकर दायें-बायें!

अतिशय प्रमुदित थे मिथिला के नर-नारी, उत्सव छाया था खुले धरा आँगन में,
अक्षत, रोली, पुष्पों की थाली लेकर, मंगल गाती आती मैथिल-कन्याएं!
धरती को अर्घ्य और पुष्पांजलि देकर, गुरु ने कर दिया तिलक नृप के माथे पर,
श्रृंगार सजे थीं साथ सुनयना रानी, मिथिलेश बढे नंगे पैरो हल लेकर!

बन गईं दूर तक लीकें हल के फल से, फिर टकरा कर रुक गया न जाने कैसे,
रुक गए विदेह, सुनयनारानी ने बढ, झुक किया प्रणाम धरित्री को नत शिर से!
निर्वसना क्षिति की कोख जन्म देती है, रज-रंजित कर करती सहाय कन्यायें!
आयास-प्रयास, शंख-घन्टे-मंगल ध्वनि, झुकती कुमारियों के आँचल लहराये!

क्या लिखा विधाता ने हल से मिट्टी में, हुलसी थी धरती होकर सद्य-प्रसूता,
मिथिला की रज पर अब तक अंकित होगा, इस जगह भूमि से प्रकट हुई थी सीता!
निधि पाई लक्ष्मी आई मिथिलापुर में, पुर-जन में छाया तत्क्षण ही कोलाहल,
आ गया कलश हाथों में कन्याओं के, रानी ने ग्रहण किया आँचल फैला कर!

घट से प्रकटी वह ज्योति शिखा-सी दीपित, करती प्रसन्न दिशि-दिशि उजास पूरित कर,
हर्षित, विस्मित निर्वाक् सुनयना रानी, अनहोनी जैसे देख रही हों प्रतिपल!
युग-युग क्या, सदियों में क्या कल्पों में भी, कब जुड पाए होंगे ऐसे संयोजन,
सबकुछ अद्भुत अनघट लग रहा मुझे तो, सौभाग्य कि सब कुछ देख रहा हूँ इस क्षण!

ऋषि अपलक रहे निहार सोच-परिपूरित, माथे की गहरी होने लगीं लकीरें,
साक्षी होकर अपूर्व-अश्रुत घटना के, कुछ स्वगत कथन सा करते धीरे-धीरे!
रानी के आँचल तेज-पुंज-सी दिपती नन्ही शिशु-काया अधरों में मुस्काई,
आश्वस्ति दिलाते हिले अरुण दो करतल, धरती से गगनांचल तक ज्योत्स्ना छाई!

"यह रूप तेज यह कान्ति अपूर्व सभी कुछ, यह दृष्टि, सौष्ठव यह अंगों का अनुपम,
यह योग विरल, क्या कभी सृष्टि में आया? उजले माथे की लिपि तो और विलक्षण!
आँखों मेंअश्रु भरे आगे बढ आई पुर-वनिताओं के साथ भाव-विह्वल -सी,
सज्जा केशों की तीन जटाओंवाली, कन्या के दर्शन हेतु यन्त्र-चालित-सी!

बाँहें पसार, आषिश देती पागल सी, वह परदेसिन नव-शिशु-मुख पर आई झुक,
"कैसा विचित्र संयोग! देख लूँ मै भी, इस विरल, विलक्षण भू-कन्या का प्रिय-मुख!"
कौतूहल भरे दृष्टि मेंपुर-बालायें, "ये कौन, कहां से आईं मिथिलापुर में?"
"अति दूर देश की व्रती साध्वी नारी की सहचरि बन व्रत का उद्यापन करने!"

कितने जप-तप न्यौछावर जिस गरिमा पर अवतार लिया पावन धरती की निधि ने!
चुप खडे रह गए चकित, भ्रमित-से ऋषिवर, कैसा अदृष्ट लिख डाला लेकिन विधि ने?
अभिभूत जनक ने दोनो हाथ पसारे कन्या को ले निज अंक स्नेह से आकुल,
रोमांचित युगल बिसारे सुधि तन-मन की, नयनो से बहती धार अश्रु की छलछल!

"मम पुत्री हो, यह रहे मुदित कामना यही जागी मन में,
गुरुवर, सुख-शान्ति पूर्ण होगा, क्या अंकित भावी जीवन में?"
"राजन्, विदेह होकर यह कैसी इच्छा? सुखकामी तो साधारण जन होते हैं,
जो धारा के प्रतिकूल बढ सके आगे, उन विरल जनों के लक्ष्य भिन्न होते हैं!

औचक रह गया विधाता स्वयं रचित कर, युग्मों से पूर्ण कर दिया जिसने जीवन,
कुछ भी तो शेष न रहा और लिखने को, क्या कहूँ? समझ लूँ पहले हो संयत मन!
यह तो मनस्विनी, तेजस्विनि इस जग में, नारी जीवन को देगी नई दिशाएं
नूतन मर्यादा, नव-प्रतिमान रचेगी, नत होंगी इसके सम्मुख सब बाधाएँ!

अन्तर्विरोध जीने वालों को नृपवर, सुख-शान्ति कहाँ मिल पाती तुम्ही विचारो,
जो अग्नि-परीक्षा देता रहे अविचलित, सौभाग्य मिला है, वह व्यक्तित्व सँवारो
करतल-गत होंगी सब विद्यायें इसको, लक्षित हैं सारे अस्त्र-सिद्धि के लक्षण
अत्यल्प प्रयासों से सब ग्रहण करेगी, जो चाहेगी वह फलीभूत हो तत्क्षण!"
 
क्रम-क्रम से जाना ऋषि से मिथिलापति ने नारी पाएगी एक नई परिभाषा,
सीता जब से अवतरित हुई मिथिला में,जन-जन मेंजागी नव-जीवन की आशा!
मिथिला की माटी में हल के फल से उत्कीर्ण हुए जिस कविता के अंकन,
जग के परितापों में परिपक्व हुए, नारी गरिमा के उज्ज्वल आलेखन!

कुछ श्याम मेघ आ छाए नभ के पट पर,
लहराती आई रसवंती पुरवाई।
सोंधी-सी गन्ध उठी क्षिति के आँचल से,
मां के दुलार सी उठ कन्या तक आई!