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रावण / प्रतिभा सक्सेना

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"सीते, राघव की परिणीता हो लेकिन, जो सच है उसको तो कानों से सुन लो,
जो अनुचित लगे निकालो अपने मन से, पर कुछ भी तथ्य लगे तो उसको गुन लो!
स्वीकार किया यदि होता चंद्रनखा को तो एक नया संबंध परस्पर जुडता,
दो संस्कृतियाँ मिलतीं दोनो कुछ पातीं औ लीक छोड कर एक नया पथ बनता!
 
तुम अपने उर पर हाथ धरो औ सोचो, यदि बहिन राम की होती, वे क्या करते,
हमको पशु पापी और अधम घोषित कर त्रिभुवन तक अपनी टेर लगाते फिरते!
हड्डी के पर्वत? हम पिशाच हों जैसे, कितना मिथ्या, काला चित्रण कर डाला,
मेरे जीते जी उस द्रोही भाई का सागर तट पर ही राज-तिलक कर डाला!

क्या कहूं कि भाई ही अपनी लिप्सा में, कुल-नाशी बना रक्ष-संस्कृति-संहारक,
सचमुच वैराग्य जगा था उसके मन में, तो छोड सभी कुछ चल देता अपवंचक!
मैं मर जाऊँ इसका उपाय बतलाने, वह गया शत्रु के पास विभीषण लोभी,
लंका का स्वामी बन जाने को आकुल, मृत्यु तक प्रतीक्षा भी न कर सका द्रोही!

उस भरी सभा से निकला था वह भाई खर शराघात का मुझको लक्ष्य बनाकर,
लंका के सारे भेद वहाँ पहुंचाए, पहले सलाह की हनूमान से मिलकर!
वे कूट-निपुण थे, डाली फूट यहाँ पर, हनुमान विभीषण दोनो बने कुचक्री,
इस भांति मनोबल टूटे यत्न यही था, लंका पर उनकी दृष्टि हुई थी वक्री!"

वह वाणी लंकापति की तर्क मयी हो सीता का समाधान करने को आतुर,
कोई विद्वान तर्क पर तोल रहा हो, तब लगा न रावण कामी और क्षुधातुर!
ये सभी मान्यतायें तो संस्कृतियों की अपने ढँग से व्याख्यायित की जाती हैं-
पर इनसे ऊपर एक बड़ी नैतिकता, मानवता के नाते सबको वाँछित है!

दैत्यारि और दनुजारि विरुद धारण कर, संदेश शत्रुता का पहले दे डाला,
फिर कहलाते, 'पापियों, शरण में आओ', क्या सभ्य जगत से पडा न कोई पाला?
कश्यप ऋषि की संताने हम सारे ही बहने-बहने थीं, हम सब की माताएँ,
दनु, दिति औ अदिति सभी तो थीं दक्ष प्रजापति की ही प्रिय कन्याएं!

अपना वर्चस्व बढ़ाने को देवों ने, औरों से वंचन किया कुचक्र रचाए!
कथनी करनी में बहुत बडा अंतर है, सबसे लेते ये किन्तु देव कहलाए!
हमसे कहते पापिष्ठ कुटिल खल कामी, गुरु -पत्नी से व्यभिचार स्वयं करते वे,
पशु बन जाते वासना तृप्ति के हित वे, मुग्धा बालाओं को शापित कर देते।

वे अहंकार से भरे महा क्रोधी हैं, हैं मानव -सुलभ भावनाओं से वंचित,
मेरे मारण हित बडी साधना की थी, क्या तुम न कहोगी इन कार्यों को गर्हित?
छल का इतिहास पुराना है इस कुल में, क्या पाया उनने कैकेयी को छल कर?
रघुकुल के यश की कथा और ही होती, विश्वास अगर करते ऐसी पत्नी पर!

और पत्नी? उसके जन्म और जन्मान्तर व्यक्तित्वहीन हो पति पर ही न्यौछावर,
अपना अबाध अधिकार मानते हैं वे पत्नी के तन पर, मन पर औ आत्मा पर
मानवता पल्ला छूटा तो ओढ लिया झट ईश्वरत्व,
इस दोहरेपन में कुछ न बचा, बस 'मैं' बस मेरा ही महत्व!


वे आत्म तत्व की ऊँचा-ऊँची बातें, आदर्श- जाल, शब्दों का दिखलावा है,
नर के आत्मा है, प्राण और संवेदन, नारी का तन बस माटी का भाँडा है!
तुम सीता, मन्दोदरि औ मेरा अंतस् मैने तुम को उँगली भी नही छुआई,
पर जीतेगा जयकार उसी की होगी अपराधी, जिसने यहाँ पराजय पाई!

निन्दा हो या यश मिले कहे कोई कुछ, जो उचित लगेगा मै तो वही करूँगा,
अपना जीना हो औरों की शर्तों पर, इससे तो मैं वीरोचित मृत्यु वरूँगा!
नैतिकता का मानक बनना क्यों चाहे, अपना विवेक सब को ही राह दिखाता,
मर्यादाओं की यहां दुहाई देकर, अंतर के स्वर को सदा दबाया जाता!

अंधे विश्वास लाद कर जन-मानस पर, यों सोच समझ पर डाले पक्के ताले,
फिर भक्ति-मुक्ति का उनको नशा पिलाकर सब बुद्धि-विवेक-तर्क कुण्ठित कर डाले!
जी-भर दुष्कर्म करो पर नाम राम का, तुमको पुण्यात्मा करके ही दम लेगा,
यह जीवन-दर्शन है तो फिर मानव को किस ठौर न जाने ले जाकर पटकेगा!

वे राम-भक्ति के नाम लोभ दे-दे कर, भाई को भाई से उलझा देते हैं,
फिर अपने कृपा-कटाक्षों से उपकृत कर अपने सारे ही काम बना लेते हैं!
औ जन्म तुम्हारा? मुझे पता है लेकिन। फिर चुप हो गया उदास, एकाएक ही वह,
सीता ने दृष्टि उठाई तो यह देखा रावण की आँखें टिकी हुई धरती पर!

वैदेही चुप ही रही किन्तु जाने क्यों,
 अन्तर में कैसी करुणा-सी घिर आई,
उद्वेलित-सा हो उठा हृदय जाने क्यों,
मय-कन्या के मुख पर भी दुख की झाईं!

वे दारुण दिन!
पितृ-कुल के दुर्दिन, सर्वनाश!
उस सबकी साक्षी है सीता!
अनुचरियाँ, माता-पिता, बन्धु, हत और खिन्न,
रहती गुमसुम, चुप-चुप सीता!
यंत्रणा असह्य, रात्रियाँ क्रंदन में डूबीं,
प्रस्तर बन बैठी है सीता!
समझेगा कौन? बताये किसको
युद्ध-काल कैसे बीता!

सब सुनती सीता खिन्नमना, बैठी नत-शिर,
कानों में पडती चर्चायें, फिर कुछ त्रिजटा के आने पर!

"कैसा अनर्थ हो गया, आ गये यहाँ भालु-कपि, दल के दल?"
"सारे ही भेद मिल रहे हों तो, गुप्त-मार्ग भी उन्हें सरल!"
"संभव होगा यह भी, न किसी के मन में कोई शंका थी,
कर डाली नष्ट-भ्रष्ट उनने पूरी मखशाला लंका की!"
"ध्यानस्थ, मंत्र पढ़ते लंकापति को ताड़ित कर वार किये,
कर दिये विदारित वस्त्र और मस्तक पर पाद-प्रहार किये!"
"कैसी पशुता, उनके सैनिक! सुन लो, चीत्कार रुदन के स्वर!
कक्षों में घुसे नारियों के धर केश खींचते धरती पर!
यज्ञाग्नि बुझा, वेदी खंडित कर उपादान कर दिये भ्रष्ट,
उठ पड़े लंक-पति क्रोध भरे, हो सका न उनका पूर्ण इष्ट!"

"ऐसा न किसी को बंधु मिले!
ऐसे न वंश का पाप पले!"

"गिरि-गुहा मध्य, देवी निकुम्भला को कर डाला क्षत-विक्षत,
कर घृणित वस्तुओं की वर्षा,कर दिया पवित्र-स्थल कलुषित!"

"सब उचित उन्हें, वे यही राम की यशगाथा में गायेंगे,
मरयादहीन आतंक-कृत्य अभिमान सहित दिखलायेंगे!"

रण-खेत रहा पति लेने पहुँची राज-वधू जब लंका की
ऐसे सौजन्यहीन होंगे, किसको ऐसी आशंका थी?,
वे लगे दिखाने भालु वानरों के जमघट को कौतुक सा!
पहले सतीत्व का दो प्रमाण, फिर ले जाओ तन मृत पति का,

'धिक्, दंभ, विकृति से भरा हुआ निर्लज्ज बना फिर भी विशिष्ट!'
दुखिनी कुलवंती नारी से वह धृष्ट हुआ इतना अशिष्ट,
'इतना उद्धत, मर्यादहीन, दुःशील,' शक्रजित् शीष हँसा,
निर्लज्ज विवश कुल-नारी से तू माँग रहा कैसा प्रमाण!
मैं नहीं इसलिये दुस्साहस!तुझ को सौ-सौ धिक्कार राम!

"कुलघाती की तृष्णा सब लील गई,
किसकी कुदीठ लग गई राख हो गये, रतन?
युवराज्ञी पति के संग सिधार गईं,
वे चिर-सहचर थे जीवन हो कि मरण!"

कानो से सुनती सब, विषण्ण, विजड़ित सी
धीमें स्वर में चर्चायें चलती रहतीं!
कितना कड़वा है सत्य, यथार्थ बहुत कटु,
आदर्श खोखले, मन में ही घुट रहती!