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जल-समाधि / प्रतिभा सक्सेना

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ये विगत स्मृतियों के दारुण दंशन, ऊपर से शान्त, किन्तु भीषण मंथन,
भीतर कचोटता कैसा पछतावा, सागर में धधक रहा जैसे वड़वा!
कोई पंछी नीरवता में चीखा, वह टेर रहा है सीता, हा सीता,
मैं किससे कहूँ आज मन की बातें, जीवन भर की वे घाते-प्रतिघातें?

अपनी त्रुटियों पर अगर ध्यान जाता तो कुछ परिमार्जन पहले हो जाता!
चर से धोबी की बात सुनी मैने, लावा जैसा कुछ उमड़ पड़ा मन में!
सामना करूँगा कैसे जन-जन का, किस-किस से कहता फिरूँ कष्ट मन का?
सामना न कर पाता मैं सीता का, अपना ही अंश धरे परिणीता का!

मैं समाधान उसका कैसे करता, वह प्रखर तेज निरउत्तर कर जाता!
जो सच है कह डालो वह तो कहती, अपने निर्दोष जगत् में वह रहती
रावण-मन्दोदरि की पुत्री हूँ मैं, तो काहे की लज्जा, संशय या भय?
वे बने पुरोहित। यज्ञ हेतु सत्वर, वामांग तुम्हारे बैठाया लाकर!

वे पण्डित थे, माँ गरिमामय नारी, फिर मैं विदेह के संस्कारधारी!
हा, हंत! दैव मैंनें क्या कर डाला, उस उज्ज्वलता को दंडित कर डाला!
याचना क्षमा की सीता से करने, जा बन्धु लक्ष्मण समा गया जल में।
तुम क्षमा करो हे वैदेही सीते, मेरे जीवन के सारे सुख बीते।

लव-कुश पूछेंगे हम क्यों थे वन में, क्यों पिता, रही माँ उस निर्वासन में?
क्या अपर पक्ष सुनना भी वर्जित है? क्या यहाँ न्याय भी यों मर्यादित है?
चुपचाप निरुत्तर मैं क्या बोलूँगा? फिर किसके आगे मन को खोलूँगा?
अब कहाँ नीद या, क्षण को शान्ति मुझे, हर ओर तुम्ही हो होती भ्रान्ति मुझे!

वह बहुत प्रखर थी, इधर मुखर भी थी, इसलिये कि विषम परिस्थितियाँ उसकी!
मैं बोला था- "तुम बदल गईं कितना, वह चुप-चुप सीता मुखर हुई कितना?"
उसका कहना था, "समय सिखा देता, मर्यादाओं को सस्वर बना देता!"
"कौशल्या माता कुछ न बोलती थीं, पति के सम्मुख मुख नहीं खोलती थीं!"

जानकी मुस्करा कर देती उत्तर, मर्यादा में दब जाते अंतर स्वर।
तब बहुत सहज था हँसकर चुप रहना, वह चुप्पी अब देती है दुख दूना।
अतिशान्त और वस्त्राभूषण भूषित, शिविका पर आई श्री-शोभा संयुत,
उसके जननी औ जनक स्वर्गवासी, वह दुख भी झेल रही थी एकाकी!

मै सोच न पाया धैर्य न रख पाया, वर्चस्व जताने पर ही तुल आया?
वह क्यों झुकती अपना गौरव खोकर, मिथ्यारोपण और व्यंग्य-वचन सुनकर,
वह सहज,अमल मन, अतुल शान्तिधारी, विश्वास-भावनामयि प्रबुद्ध नारी।
मैंनें केवल बाहरी रूप देखा, कितना दारुण दुख छिपा हृदय में था!

वह है समर्थ मुझको आभास न था, आक्रोश कि लाँघ गई लक्ष्मण-रेखा।
कोई क्या जाने सीता का नैहर, लंका के राजा दशकंधर का घर!
शिव-धनुष दशानन ने तो छुआ न था, उसने अपना संबंध निभाया था!
फिर भी अशोक-वन में ही रहती थी, इसलिए क्योंकि वह निर्वासन में थी!

कैसे जा कहता निन्दा की भाषा, लज्जा से मेरा मस्तक झुक जाता,
"मर्यादा निर्दोषों की बलि लेती?" कहती तो जिह्वा क्या उत्तर देती!
हाथों में मुँदरी लिये राम चुप-चुप, देखते हुए ही सोच रहे थे कुछ।
मुंदरी में देखी सारी पूर्व कथा, अंतर में उमडी दारुण दुसह व्यथा।

लौटा दी यह मुद्रिका मौन ही रह, मुझको न कल्पना भी थी होगा यह!
जाकर गवाक्ष पर खडे हो गए वे, सरयू-जल छूकर आते थे झोंके।
क्षण-भर भी शान्ति नहीं इस जीवन को, कैसे बहलाऊँ ग्लानिभरे मन को?
धरती पर तृण-शैया मैंनें डाली सब सूख गई जीवन की हरियाली।

पर आज मुझे लगता सब व्यर्थ हुआ, कुछ होना थ कुछ और अनर्थ हुआ!
चलकर गवाक्ष से पहुँचे द्वार तलक, नभ में आया ता चांद नहीं तब तक,
अँधियार-पक्ष बस तारे चमक रहे, अंगारों के कण जैसे दहक रहे!
फिर द्वार खोल देखा प्रहरी सोए, फिर कनक- भवन को देख राम रोए!

सोचों में डूबे से उनजाने ही चल पडे मार्ग को अनपहचाने ही!
सरयू -तट पर आ रहुंचे घाटों पर, बीतती निशा थी, शान्त सभी निस्स्वर।
अति निविड़ रात्रि टेढा-सा छाँद उगा, पुर का प्रकाश भी पीछे छूट गया,
ऊपर नभ में थे अनगिनती तारे, पलकें झपकाते चमक रहे सारे!

कुछ इंगित-सा कर रहे उधर देखा, नीचे जल में वे उतर पड़े सारे!
सरयू बहती, चुप-चुप शैवाल खड़े, दिशि-दिशि में धुँधलाया सा अँधियारा,
झाऊ के वन झन्-झन् झनकार रहे, झिल्ली-रव से गुँजित है वन सारा।
उतरे नीचे सीढी पर बैठ गए, वे अरुण चरण-तल जल में डूब गए,

चुपचाप ताकते वानीरों के वन, बाँसों के झुर्मुट शान्त और निस्वन!
कोई बतला दे कहां गई सीता, उस बिन कैसा मेरा जीवन बीता!
कुछ लगा कि खनक उठे धीरे कंकण, गूंजी हल्की-सी नूपुर की रुनझुन।
दो मीन नयन चंचल से हो जल में दिखते फिर ओझल हो जाते पल में!

वह नीली साड़ी स्वर्णतारवाली लहराता आँचल रत्न-जटित बाली!
वे सघन श्याम उलझे से केश दिखे, कुछ मुक्ता खुल जल पर देखे तिरते,
खिल-खिल कर फिर हँस उठे अधर जैसे, जल में उठ बिखरी मन्द लहर कैसे,
वह जा बैठी है सरयू के जल में, हँस रही मैथिली छिपी हुई तल में!

उजले कर तल वे चन्द्र-किरण जैसे, भरकर विनोद में हिला रही कैसे।
फैला नीला तारोंवाला आँचल, छिपती जल में जाती किस ओर निकल!
वनवास काल में प्रिय था उसको जल, डुबकी ले दूर निकलने का कौशल।
वे उतरे जल में आगे ही आगे, सीते-सीते कहते वे पग भागे!

कुछ लगा कि गहरे उतर गई सीता, थी अभी इधर उब किधर गई सीता?
आगे बढ़ते जाते वे पल-पल में, पीताम्बर लहराया सरिता-जल में,
छाती तक लहरें फिर तो कण्ठ तलक लहरों में लहरे उनके श्याम अलक।
उनको वस्त्रों का कोई ध्यान न था, सीता थी मन मेंखोई भान न था।
 
शैवालों ने पकड़ा था पीताम्बर पर रुके न बढते रहे जानकी-वर।
वे हाथ बढ़ाते बढ़े और आगे, जैसे कि पकडने को कुछ हों भागे!
उच्छल जल-कण छूते उजला मस्तक, जल में घुलता वह कस्तूरिका तिलक।
मुद्रिका छूट कर गिरी अतल जल में कुछ बहुत घट गया उस छोटे पल में!

ऊपर नभ से कोई तारा टूटा, खिंच गई क्षितिज तक चमकीली रेखा।
उस लघु क्षणांश में दिखे केश लहरे पर उतर चुके थे राम बहुत गहरे!
वर्तुलाकार लहरें उठती-गिरतीं, जल के तल तक हलचल छलछल करती,
छिप गया चाँद, अँधियारा गहराया कुछ भी न सुनाई दिया समझ आया!

पीताम्बर उलझा था शैवालों में, देखा था सुबह अयोध्यावालों ने!
संदेशेवाली राम-नाम संयुत, संघर्ष-प्रेम -गाथा जिस पर अंकित,
लौटा दी थी राघव को सीता ने वह कहीं पडी है सरयू के तल में!
अब भी तो सरयू गाती है अविरल, छल-छल वाणी में करुण-कथा कल-कल!