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पछतावा ही पछतावा है! / महेन्द्र भटनागर
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पछ्तावा ही पछ्तावा है!
मन / तीव्र धधकता लावा है!
जब-तब चट-चट करते अंगारों का
मर्मान्तक धावा है!
संबंध निभाते,
अपनों को अपनाते / गले लगाते,
उनके सुख-दुख में जीते कुछ क्षण,
करते सार्थक रीता जीवन!
लेकिन सब व्यर्थ गया,
कहते हैं — होता है फिर-फिर जन्म नया,
पर, लगता यह सब बहलावा है!
सच, केवल पछ्तावा है!
शेष छ्लावा है!