भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

किसी दिन / आशुतोष दुबे

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 01:17, 24 जून 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=आशुतोष दुबे |संग्रह= }} {{KKCatKavita}} <poem> बह...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बहुत पुरानी चाबियों का एक गुच्छा है
जो इस जंग लगे ताले पर आजमाया जाएगा
जो मैं हूँ
मुझे बहुत वक़्त से बंद पड़ी दराज़ की तरह खोला जाएगा
वह ढूँढ़ने के लिए जो मुझमें कभी था ही नहीं

जो मिलेगा
वह ढूँढ़ने वालों के लिए बेकार होगा

जो चाबी मुझे खोलेगी
वह मेरे बारे में नहीं, अपने बारे में ज़्यादा बताएगी

मैं एक बड़ी निराशा पर जड़ा एक जंग लगा ताला हूँ
मुझे एक बाँझ उम्मीद से खोला जाएगा
झुँझलाहट में इस दराज़ को तितर-बितर कर दिया जाएगा
शायद उलट भी दिया जाए फ़र्श पर
कुछ भी करना,
झाँकना, टटोलना, झुँझलाना,
फिर बन्द कर देना
मैं वहाँ धड़कता रहूँगा इन्तज़ार के अन्धेरे में

मुझे एक धीमी-सी आवाज़ खोलेगी किसी दिन