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पानी के बाहर भी / अनूप अशेष

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मोड़ इसमें कई यह
लम्बा सफ़र है।।

देह डूबी हुई
धानी धान सी
जीन सूखी
रची
बासी पान-सी।

एक कोने में छिपा
दुर्दिन का डर है।।

आलता रंग-सी
सुए की चोंच-सी
ऊँचे-नीचे
दिनों की
यह मोंच-सी।

छाँह के संबंध में भी
धूप-फर है।।

आँख ओठों बीच
बैठी सदी-सी,
ज़िन्दगी है
बाल खोले
नदी-सी।

जीने-मरने को कहीं
रस्ते का घर है।