एक मित्र से / हरिनारायण व्यास
वस्तुतः हम मित्र हैं।
और कुछ होना असम्भव
क्योंकि हम इस सृष्टि की उद्भावना के
नित अधूरे ज्वाल में लिपटे
मिलन की माँग करते
दो दिशाओं में लटकते चित्र हैं।
हट गया पर्दा न जाने कौन पल में :
एक मणि जो मृदु किरण के बन्धनों में
बाँध कर हम को कहीं दुबकी पड़ी थी
हो गयी प्रत्यक्ष।
और उसकी प्राप्ति भी अब हो गयी है लक्ष्य
जो कभी हम को मिला दे।
मैं इसी आलोक में से
दूर के गिरि-गह्वरों में घूम कर जाती हुई दुर्गम
डगर पर देखता हूँ।
सोचता हूँ तुम इसी आलोक की उज्ज्वल लकीरों के
सहारे यदि चली आओ
मिलें हम फिर, चलें आगे जिधर जाना हमें।
यह हमारा लक्ष्य मणि विधुकान्त है
जो वयस की चन्द्र किरणों में पिघलता।
झर रहा अमृत कि जिस में हम नहा कर
आज कर लें कल्प मन का।
आज अमृत की नयी मन्दाकिनी आ कर
हमारे द्वार पर
तुम से मुझे, मुझ से तुम्हें आबद्ध करती।
हम नहा लें आज इस में
आज घर आया हमारे यह नया पावित्र्य है।
मित्र, हम-तुम मित्र हैं।
विश्व के आदर्श की छोटी भुजाएँ
यह हमारे स्वप्न का ब्रह्माण्ड इस में
किस तरह सिकुड़े-समाये?
इस लिए आओ बदल लें राह अपनी
चल नयी पगडण्डियों पर
हम नया आदर्श पायें।
यह हमारा पथ छिदा है कण्टकों से
झर चुकीं निर्गन्ध सूखी पंखुड़ियाँ बनफूल की।
दूसरे पथ पर पड़ी हैं हड्डियाँ
फैला हुआ भोले जनों का रक्त
द्रौपदी-सी चीखती हैं नारियाँ निर्वस्त्र
जिन के चीर दुःशासन कहीं पर
फेंक आया खींच कर।
मूक शिशुओं के अधर की प्राणदा पय-धार
नभ का चाँद बन कर हो गयी है दूर।
देखती जिन को सरल मृदु स्वच्छ आँखें
उँगलियाँ मुड़तीं पकड़ने
उस गगन के चाँद को।
ले रहा करवट नयी हर बार जीवन
किन्तु तीखा तीर जो उस के हृदय में आ लगा है।
और पीड़ा में नहीं कुछ भान
कौन-सा है मोड़ पथ में कुछ न इस का ध्यान
हम इसी पथ पर चलें
संसार का दुःख दर्द धो दें।
इस हमारी मित्रता के दीप को, एक अभिनव ज्योति
किरनों से सँजो दें।
सोचता हूँ तुम सजीवन
चेतनामय प्राण से सींची हुई
नव रम्यता के पल्लवों के भार से झुकती हुई
नववल्लरी हो।
और जिसके स्वप्न के सुन्दर सुमन खिल कर निकटतर
झुक रहे मेरे अधर के।
जिन की रम्यता मुस्कान बन बिखरी हुई है।
यह पुरानी बात है
युग-युग पुरानी।
किन्तु आओ, इस पुरानी बात से हम भी नया
आदर्श पायें।
क्योंकि इस में सब नये मन को मिला तब रूप
सब को यह दिखी बन कर नयी अपनी कहानी।
पास आओ, हम इसी से
आज अपना अर्थ पायें।
तोड़ कर सब आड़
हम तुम पास आयें
क्योंकि हम तो मित्र हैं।
मित्र, आओ, अब नया आलोक दें इस दीप को।
यह हमारा आत्मज नैकट्य का सुख
साथ हम को देखने का हठ लिये है,
साथ चल कर हम इसी की चाह पूरी आज कर दें।
जन समुन्दर के किनारे की समय की बालुओं पर
हम युगल पद-चिह्न अपने भी बना दें।
और हम तुम एक होकर
कोटि जन की सिन्धु लहरों में मिला दें
आप अपनापन।
हम खड़े हो कर बुभुक्षित फौज में
निज मोरचे पर
सामने के शत्रु दुर्गों के -
क्योंकि पहले तोड़ना है दुर्ग
जिस की गोद में बन्दी हमारी चाहना है।