त्रिलोचन / बोधिसत्व
‘सुनने में आया, हैं बीमार त्रिलोचन
हरिद्वार में पड़े हैं, अपने बेटे के पास
जिनका कविता-फ़विता से कोई
लेना-देना नहीं है। टूट गई है जीभ, जो मन सो
बकते से हैं, जसम-फ़सम, जलेस-प्रलेस सब
सकते में हैं’
खबर सुनाई जिसने कवि-अध्यापक वह
इलाहाबाद-अवध में चर्चा है व्यापक कह
मौन हुआ, मैं रहा देखता उसका मुंह
रात बहुत थी काली, जम्हाता अंगुली
पटकाता वह फिर बोला –
‘सूतो अब तुम भी’
मैंने मन ही मन कहा –
‘त्रिलोचन घनी छांव वाला तरुवर है
मूतो अब तुम भी’
उस पर विचार के नाम पर
दुर-दुर करो, कहो वाम पर
धब्बा है त्रिलोचन
कहो त्रिलोचन कलंक है।
भूल जाओ कि वह जनपद का कवि है
गूंज रहा है उसके स्वर से दिग-दिगंत है।
मरने दो उसको दूर देश में पतझड़ में
तुम सब चहको भड़ुओं तुम्हारा तो
हर दिन बसंत है।