जब मिटा कर नगर गया होगा
क्या वो लम्हा ठहर गया होगा
आइने की उसे न थी आदत
खुद से मिलते ही डर गया होगा
वह जो बस जिस्म का सवाली था
उसका दामन तो भर गया होगा
अब न ढूंढो कि सुबह का भूला
शाम होते ही घर गया होगा
खिल उठी फिर से इक कली "श्रद्धा"
ज़ख़्म था दिल में, भर गया होगा