कला-निधि मंजु माधुरी देख,
क्यों न उर-उदधि बने अभिराम।
क्यों न अवलोक मूर्ति कमनीय,
कमल-से लोचन हों छवि-धाम।
रमा का पति है मेरा राम,
तप त्रिविध-ताप-तप्त के हेतु।
क्यों न दे सुखद जलद-सम काम,
सकल भव-रुज-दव-दग्ध-निमित्त।
सजीवन कैसे बने न नाम,
जगत-जीवन है मेरा राम।
ललित लीला है महि आलोक,
सीता-सम है कल कीर्ति ललाम।
सुर-सदन का है सुंदर गान,
अलौकिकता-अंकित, गुण-ग्राम।
लोक-रंजन है मेरा राम,
छाँह छू बने अछूत अछूत।
हो गये पतित पूत ले नाम,
पग परस पापी हुए पुनीत।
मिला अधामों को उत्तम धाम,
पतित-पावन है मेरा राम।
कौन है ऊँच, नीच है कौन,
रखो मत इन झगड़ों से काम।
सुनो तुम सबका अंतर्नाद,
किसी का मत अवलोको चाम।
रमा है सबमें मेरा राम।