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चाँद और बादल / सविता सिंह

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बादलों से उबरता है चाँद
स्वप्न जैसे नींद से
हवा में डोलती है हौले-हौले घास
और लो निकल आया पूरा का पूरा चाँद

ठंडी रात और उसके सफ़ेद पखेरू
कब से सहते आए हैं
सौंदर्य के ऐसे अतिक्रमण

मूक अवाक खड़ी नदी तट पर मैं
ताकती हूँ आसमान
हौले से लगती है किनारे एक नाव
किसको जाना है अभी कहीं और मगर...