भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
घर-2 / अरुण देव
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 10:31, 10 जुलाई 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अरुण देव |संग्रह= }} {{KKCatKavita}} <poem> मिट्ट...' के साथ नया पन्ना बनाया)
मिट्टी ने कहा जल से थोड़ी देर के लिए बस जाओ मेरी देह में
फिर दोनों निर्वस्त्र खड़े हो गए सूरज के सामने
कि पता ही नहीं चलता था कि पानी ने कहाँ-कहाँ गढ़ा है उसे
कि पानी के आकार में ख़ुद वह ढल गया है कि
पानी ने उसके अन्दर तान लिया है अपना होना
कि तयशुदा आकार में दोनों कैसे एक साथ ढल गए होंगे
सूरज तपता रहा उनके बीच
पकती रही ईंट