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अशआर रंग रूप से महरूम क्या हुए / राज नारायन 'राज़'

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अशआर रंग रूप से महरूम क्या हुए
अल्फ़ाज ने पहन लिए मानी नए नए

बूँदें पड़ी थीं छत पे कि सब लोग उठ गए
क़ुदरत के आदमी से अजब सिलसिले रहे

वो शख़्स क्या हुआ जो मुकाबिल था सोचिए
बस इतना कह के आईने ख़ामोश हो गए

इस आस पे कि ख़ुद से मुलाक़ात हो कभी
अपने ही दर पर आ ही दस्तक दिया किए

पत्ते उड़ा के ले गई अंधी हवा कहीं
अश्‍जार बे-लिबास ज़मीं में गड़े हुए

क्या बात थी की सारी फ़ज़ा बोलने लगी
कुछ बात थी कि देर तलक सोचते रहे

हर सनसनाती शय पे थी चादर धुएँ की ‘राज़’
आकाश में शफ़क़ थी न पानी पे दाएरे