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कर्ज़ / मिथिलेश श्रीवास्तव

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समय जब ख़राब आ गया
कर्ज़ देने की होड़ लग गई
शर्त यही कि जब हो लौटा देना
न लौटा सको या लौटाने में देर होने लगे
मन पर कोई बोझ मत रखना
धारणा यही कि कर्ज़
बुरे दिनों में उदारता से दी गई मदद है
कई उदार मित्र देने लायक कुछ
हमेशा घर में बचाकर रखते ।

कर्ज़ लेकर उसे पचा जाने वालों की संख्या
संसार में बहुत कम थी
कई कर्ज़ से मुक्ति के लिए पाग़लों की तरह बेचैन रहते
और जो बेफ़िक्र दिखते
दरअसल वे अपने दिन फिरने के इन्तज़ार में रहते
कई तो कर्ज़ लौटाने के बजाय
दूसरे जरूरतमन्दों की मदद कर देते
और कहते कर्ज़ उतर गया
कई अपनी डायरियों में
जाने से पहले लिख जाते
कर्ज़ का पाई-पाई हिसाब ।

जीने की यह शैली उस ज़माने की है
जब दुख बाँटते संकोच नहीं होता था
कर्ज़ देने से पहले मन में आता नहीं था
पैसे के फँस जाने का विचार
इतने अर्थशास्त्रीय सिद्धान्त इतनी बैंकिंग संस्थाएँ नहीं थीं
पैसे को दोगुना और चौगुना करने वाली योजनाएँ नहीं थीं ।

समय ऐसा बदला कि पाँच बरस में दो गुना
दस बरस में चार गुना बीस बरस में आठ गुना
कर देने वाली आधुनिक अर्थशास्त्रीय तहजीबें
पैसे के घर आने की मियाद कभी पूरी नहीं होने देतीं
किसी लाचार मित्र से अपनी लाचारगी का वर्णन करते हुए
हम कह सकते हैं देखिए पैसा पड़ा है ।