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राजा-रत्न-सेन-वैकुंठवास-खंड / मलिक मोहम्मद जायसी
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तौ लही साँस पेट महँ अही । जौ लहि दसा जीउ कै रही ॥
काल आइ देखराई साँटी । उठी जिउ चला छोडिं कै माटी ॥
काकर लोग, कुटुँब, घर बारू । काकर अरथ दरब संसारू ॥
ओही घरी सब भएउ परावा । आपन सोइ जो परसा, खावा ॥
अहे जे हितू साथ के नेगी । सबै लाग काढै तेहि बेगी ॥
हाथ झारि जस चलै जुवारी । तजा राज, होइ चला भिखारी ॥
जब हुत जीउ, रतन सब कहा । भा बिनु जीउ, न कौडी लहा ॥
गढ सौंपा बादल कहँ गए टिकठि बसि देव ।
छोडी राम अजोध्या, जो भावै सो लेव ॥1॥
(1) साँटी = छडी । आपन सोइ...खावा = अपना वही हुआ जो खाया और दूसरे को खिलाया ।
नेगी = पानेवाले । हुत = था । टिकठि = टिकठी, अरथी जिसपर मुरदा ले जाते हैं ।
देव = राजा । जो भावै सो लेव = जो चाहे सो ले ।