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प्रेमा / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

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उषा राग अनुराग रंग में है छवि पाती;
रवि की कोमल किरण जाल में है जग जाती।
रस बरसाती मिली कला-निधि कला सहारे;
पाकर उसकी ज्योति जगमगाते हैं तारे।
है वह उज्ज्वल कांति कौमुदी उससे पाती;
जिसके बल से तिमिरमयी को है चमकाती।
इंद्र-चाप की परम रुचिर रुचि में है लसती;
है विकास मिस कलित भूत कलिका में हँसती।
मलयानिल के बड़े मनोहर मृदुल झकोरे;
सरि, सरि, सरसी तरल सलिल के सरस हिलोरे।
पल उसके कमनीय अंक में हैं कल होते;
मधुर भाव के मंजु बीज उर में हैं बोते।
है वसंत के विभव पर पड़ी उसकी छाया;
इसीलिए वह किसे नहीं कुसुमति कर पाया।
वह अमोल रस उसे पूज पादप हैं लेते;
जिसके बल से परम रसीले फल हैं देते।
कर कर सुधा-समान मधुर सागर-जल खारा;
धार घन-माला-रूप सींचती है थल सारा।
ओस-बूँद बन कुसुम-अवलि में है सरसाती;
नहीं कहाँ पर प्रेममयी प्रेमा दिखलाती।