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स्त्री-भेद-वर्णन-खंड / मलिक मोहम्मद जायसी

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मुखपृष्ठ: पद्मावत / मलिक मोहम्मद जायसी

पहिले कहौं हस्तिनी नारी । हस्ती कै परकीरति सारी ॥
सिर औ पायँ सुभर गिउ छोटी । उर कै खीनि, लंक कै मोटी ॥
कुंभस्थल कुच,मद उर माहीं । गवन गयंद,ढाल जनु बाहीं ॥
दिस्टि न आवै आपन पीऊ । पुरुष पराएअ ऊपर जिऊ ॥
भोजन बहुत, बहुत रति चाऊ । अछवाई नहिं, थोर बनाऊ ॥
मद जस मंद बसाइ पसेऊ । औ बिसवासि छरै सब केऊ ॥
डर औ लाज न एकौ हिये । रहै जो राखे आँकुस दिये ॥

गज-गति चलै चहूँ दिसि, चितवै लाए चोख ।
कही हस्तिनी नारि यह, सब हस्तिन्ह के दोख ॥1॥

दूसरि कहौं संखिनी नारी । करै बहुत बल अलप-अहारी ॥
उर अति सुभर, खीन अति लंका । गरब भरी, मन करै न संका ॥
बहुत रोष, चाहै पिउ हना । आगे घाल न काहू गना ॥
अपनै अलंकार ओहि भावा । देखि न सकै सिंगार परावा ॥
सिंघ क चाल चलै डग ढीली । रोवाँ बहुत जाँघ औ फीली ॥
मोटि , माँसु रुचि भोजन तासू । औ मुख आव बिसायँध बासू ॥
दिस्टि, तिरहुडी, हेर न आगे । जनु मथवाह रहै सिर लागे ॥

सेज मिलत स्वामी कहँ लावै उर नखबान ।
जेहि गुन सबै सिंघ के सो संखिनि, सुलतान !॥2॥

तीसरि कहौं चित्रिनी नारी । महा चतुर रस-प्रेम पियारी ॥
रूप सुरूप, सिंगार सवाई । अछरी जैसि रहै अछवाई ॥
रोष न जानै, हँसता-मुखी । जेहि असि नारी कंत सो सुखी ॥
अपने पिउ कै जानै पूजा । एक पुरुष तजि आन न दूजा ॥
चंदबदनि, रँग कुमुदिनि गोरी । चाल सोहाइ हंस कै जोरी ॥
खीर खाँड रुचि, अलप अहारू । पान फूल तेहि अधिक पियारू ॥
पदमिनि चाहि घाटि दुइ करा । और सबै गुन ओहि निरमरा ॥

चित्रिनि जैस कुमुद-रँग सोइ बासना अंग ।
पदमिनि सब चंदन असि, भँवर फिरहिं तेहि संग ॥3॥

चौथी कहौं पदमिनी नारी । पदुम-गंध ससि देउ सँवारी ॥
पदमिनि जाति पदुम-रँग ओही । पदुम-बास, मधुकर सँग होहीं ॥
ना सुठि लाँबी, ना सुठि छोटी । ना सुठि पातरि, ना सुठि मोटी ॥
सोरह करा रंग ओहि बानी । सो, सुलतान !पदमिनी जानी ॥
दीरघ चारि, चारि लघु सोई । सुभर चारि, चहुँ खीनौ होई ॥
औ ससि-बदन देखि सब मोहा । बाल मराल चलत गति सोहा ॥
खीर अहार न कर सुकुवाँरी । पान फूल के रहै अधारी ॥

सोरह करा सँपूरन औ सोरहौ सिंगार ।
अब ओहि भाँति कहत हौं जस बरनै संसार ॥4॥

प्रथम केस दीरघ मन मोहै । औ दीरघ अँगुरी कर सोहै ॥
दीरघ नैन तीख तहँ देखा । दीरघ गीउ, कंठ तिनि रेखा ॥
पुनि लघु दसन होहिं जनु हीरा । औ लघु कुच उत्तंग जँभीरा ॥
लघु लिलाट छूइज परगासू । औ नाभी लघु, चंदन बासू ॥
नासिक खीन खरग कै धारा । खीन लंक जनु केहरि हारा ॥
खीन पेट जानहुँ नहिं आँता । खीन अधर बिद्रुम-रँग-राता ॥
सुभर कपोल, देख मुख सोभा । सुभर नितंब देखि मन लोभा ॥

सुभर कलाई अति बनी, सुभर जंघ, गज चाल ।
सोरह सिंगार बरनि कै , करहिं देवता लाल ॥5॥


(1) अछवाई = सफाई । बनाऊ = बनाव सिंगार । बसाइ = दुर्गंध करता है । चोख = चंचलता या नेत्र

(2) सुभर = भरा हुआ । चाहै पिउ हना = पति को कभी कभी मारने दौडती है । घाल न गना = कुछ नहीं समझती, पसंगे बराबर नहीं समझती । फीली = पिंडली । तरहुँडी = नीचा । हेर = देखती है । मथवाह = झालरदार पट्टी जो भडकनेवाले घोडों के मत्थे पर इसलिये बाँध दी जाती है जिसमें वे इधर उधर की वस्तु देख न सकें । जेहि गुन सबै सिंघ के = कवि ने शायद शंखिनी के स्थान पर `सिंघिनी' समझा है ।

(3) सवाई = अधिक । अछवाई = साफ, निखरी । चाहि = अपेक्षा, बनिस्बत । घाटि =घटकर । करा = कला । बासना = बास, महँक ।

(4) सुठि = खूब, बहुत । दीरघ चारि...होइ = ये सोलह श्रृंगार के विभाग हैं ।

(5) दीरघ = लंबे । तीख = तीखे । तिनि = तीन । केहरि हारा = सिंह ने हार कर दी । आँता = अँतडी । सुभर = भरे हुए । लाल = लालसा ।