भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बादशाह-दूती-खंड / मलिक मोहम्मद जायसी

Kavita Kosh से
Pratishtha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:24, 22 अक्टूबर 2007 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मलिक मोहम्मद जायसी }} '''मुखपृष्ठ: [[पद्मावत / मलिक मोहम्...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मुखपृष्ठ: पद्मावत / मलिक मोहम्मद जायसी

रानी धरमसार पुनि साजा । बंदि मोख जेहि पावहिं राजा ॥
जावत परदेसी चलि आवहिं । अन्नदान औ पानी पावहिं ॥
जोगि जती आवहिं जत कंथी । पूछै पियहि, जान कोइ पंथी ॥
दान जो देत बाहँ भइ ऊँची । जाइ साह पहँ बात पहूँची ॥
पातुरि एक हुति जोगि-सवाँगी । साह अखारे हुँत ओहि माँगी ॥
जोगिनि-भेस बियोगिनि कीन्हा । सींगी-सबद मूल तँत लीन्हा ॥
पदमिनि पहँ पठई करि जोगिनि । बेगि आनु करि बिरह-बियोगिनि ॥

चतुर कला मन मोहन, परकाया-परवेस ।
आइ चढी चितउरगढ होइ जोगिनि के भेस ॥1॥

माँगत राजबार चलि आई । भीतर चेरिन्ह बात जनाई ॥
जोगिनि एक बार है कोई । माँगै जैसि बियोगिनि सोई ॥
अबहीं नव जोबन तप लीन्हा । फारि पटोरहि कंथा कीन्हा ॥
बिरह-भभूत, जटा बैरागी । छाला काँध, जाप कँठलागी ॥
मुद्रा स्रवन, नाहिं थिर जीऊ । तन तिरसूल, अधारी पीऊ ॥
छात न छाहँ, धूप जनु मरई । पावँ न पँवरी , भूभुर जरई ॥
सिंगी सबद, धँधारी करा । जरै सो ठाँव पावँ जहँ धरा ॥

किंगरी गहे बियोग बजावै, बारहि बार सुनाव ।
नयन चक्र चारिउ दिसि (हेरहिं) दहुँ दरसन कब पाव ॥2॥

सुनि पदमावति मँदिर बोलाई । पूछा "कौन देस तें आई ?॥
तरुन बैस तोहि छाज न जोगू । केहि कारन अस कीन्ह बियोगू" ॥
कहेसि बिरह-दुख जान न कोई । बिरहनि जान बिरह जेहि होई ॥
कंत हमार गएउ परदेसा । तेहि कारन हम जोगिनि भेसा ॥
काकर जिउ, जोबन औ देहा । जौ पिउ गएउ, भएउ सब खेहा ॥
फारि पटोर कीन्ह मैं कंथा । जहँ पिउ मिलहिं लेउँ सो पंथा ॥
फिरौं, करौं चहुँ चक्र पुकारा । जटा परीं, का सीस सँभारा ?॥

हिरदय भीतर पिउ बसै, मिलै न पूछौं काहि ?॥
सून जगत सब लागै, ओहि बिनु किछु नहिं आहि ॥3॥

स्रवन छेद महँ मुद्रा मेला । सबद ओनाउँ कहाँ पिउ खेला ॥
तेहि बियोग सिंगी निति पूरौं । बार बार किंगरी लेइ झूरौं ॥
को मोहिं लेइ पिउ कंठ लगावै । परम अधारी बात जनावै ॥
पाँवरि टूटि चलत, पर छाला । मन न भरै, तन जोबन बाला ॥
गइउँ पयाग, मिला नहिं पीऊ । करवत लीन्ह, दीन्ह बलि जीऊँ ॥
जाइ बनारस जारिउँ कया । पारिउँ पिंड नहाइउँ गया ॥
जगन्नाथ जगरन कै आई । पुनि दुवारिका जाइ नहाई ॥

जाइ केदार दाग तन, तहँ न मिला तिन्ह आँक ।
ढूँढि अजोध्या आइउँ सरग दुवारी झाँक ॥4॥

गउमुख हरिद्वार फिर कीन्हिउँ । नगरकोट कटि रसना दीन्हिउँ ॥
ढूढिउँ बालनाथ कर टीला । मथुरा मथिउँ, नसो पिउ मीला ॥
सुरुजकुंड महँ जारिउँ देहा । बद्री मिला न जासौं नेहा ॥
रामकुंड, गोमति, गुरुद्वारू । दाहिनवरत कीन्ह कै बारू ॥
सेतुबंध, कैलास, सुमेरू । गइउँ अलकपुर जहाँ कुबेरू ॥
बरम्हावरत ब्रह्मावति परसी । बेनी-संगम सीझिउँ करसी ॥
नीमषार मिसरिख कुरुछेता । गोरखनाथ अस्थान समेता ॥

पटना पुरुब सो घर घर हाँडि फिरिउँ संसार ।
हेरत कहूँ न पिउ मिला, ना कोइ मिलवनहार ॥5॥

बन बन सब हेरेउँ नव खंडा । जल जल नदी अठारह गंडा ॥
चौसठ तीरथ के सब ठाऊँ । लेत फिरिउँ ओहि पिउ कर नाऊँ ॥
दिल्ली सब देखिउँ तुरकानू । औ सुलतान केर बंदिखानू ॥
रतनसेन देखिउँ बँदि माहाँ । जरै धूप, खन पाव न छाहाँ ॥
सब राजहि बाँधे औ दागे । जोगनि जान राज पग लागे ॥
का सो भोग जेहि अंत न केऊ । यह दुख लेइ सो गएउ सुखदेऊ ॥
दिल्ली नावँ न जानहु ढीली । सुठि बँदि गाढि,निकस नहीं कीली ॥

देखि दगध दुख ताकर अबहुँ कया नहिं जीउ ।
सो धन कैसे दहुँ जियै जाकर बँदि अस पीउ ? ॥6॥

पदमावति जौ सुना बँदि पीऊ । परा अगिनि महँ मानहुँ घीऊ ।
दौरि पायँ जोगिनि के परी । उठी आगि अस जोगिनि जरी ॥
पायँ देहि, दुइ नैनन्ह लाऊँ । लेइ चलु तहाँ कंत जेहि ठाऊँ ॥
जिन्ह नैनन्ह तुइ देखा पीऊ । मोहिं देखाउ, देहुँ बलि जीऊ ॥
सत औ धरम देहुँ सब तोहीं । पिउ कै बात कहै जौ मोहीं ॥
तुइ मोर गुरू, तोरि हौं चेली । भूली फिरत पंथ जेहि मेली ॥
दंड एक माया करु मोरे । जोगिनि होउँ, चलौं सँग तोरे ॥

सखिन्ह कहा, सुनु रानी करहु न परगट भेस ।
जोगी जोगवै गुपुत मन लेइ गुरु कर उपदेस ॥7॥

भीख लेहु, जोगिनि ! फिरि माँगू । कंत न पाइय किए सवाँगू ॥
यह बड जोग बियोग जो सहना । जेहुँ पीउ राखै तेहुँ रहना ॥
घर ही महँ रहु भई उदासा । अँजुरी खप्पर, सिंगी साँसा ॥
रहै प्रेम मन अरुझा गटा । बिरह धँधारि, अलक सिर जटा ॥
नैन चक्र हेरे पिउ-कंथा । कया जो कापर सोई कंथा ॥
छाला भूमि, गगन सिर छाता । रंग करत रह हिरदय राता ॥
मन -माला फेरै तँत ओही । पाँचौ भूत भसम तन होहीं ॥

कुंडल सोइ सुनु पिउ-कथा, पँवरि पाँव पर रेहु ।
दंडक गोरा बादलहि जाइ अधारी लेहु ॥8॥


(1) धरमसार = धर्मशाला, सदाबर्त , खैरातखाना । मोख पावहिं = छूटें । जत = जितने । हुति = थी । जोगि-सवाँगी = जोगिन का स्वाँग बनाने वाली । अखारे हुँत = रंगशाला से, नाचघर से । माँगा = बुला भेजा । तँत = तत्त्व । कला मनमोहन = मन मोहने की कला में ।

(2) राजबार = राजद्वार । बार = द्वार । तन तिरसूल....पीऊ = सारा शरीर ही त्रिशूलमय हो गया है और अधारी के स्थान पर प्रिय ही है अर्थात् उसी का सहारा है । पवँरी = चट्टी या खडाऊँ । भूभुर = धूप से तपी धूल या बालू । धँधारी = गोरखधंधा ।

(3) छाज न = नहीं सोहता । खेहा = धूल, मिट्टी । चहुँ चक्र = पृथ्वी के चारों खूँट में । आहि = है ।

(4) ओनाउँ = झुकती हूँ, झुककर कान लगाती हूँ । सबद ओनाउँ...खेला = आहट लेने के लिए कान लगाए रहती हूँ कि प्रिय कहाँ गया । झूरों = सूखती हूँ । अधारी = सहारा देनेवाली । पर पडता है । बाला = नवीन । जागरण । दाग = दागा, तप्त मुद्रा ली । तिन्ह = उस प्रिय का । आँक = चिन्ह, पता । सरगदुवारी = अयोध्या में एक स्थान ।

(5) गउमुख = गोमुख तीर्थ, गंगोत्तरी का वह स्थान जहाँ से गंगा निकलती है । नागरकोट, जहाँ देवी का स्थान है । कटि रसना दीन्हिउँ = जीभ काटकर चढाई । बालनाथ कर टीला = पंजाब में सिंध और झेलम के बीच पडनेवाले नमक के पहाडों की एक चोटी । मीला = मिला सुरुजकुंड = अयोध्या, हरिद्वार आदि कई तीर्थों में इस नाम के कुंड हैं । बद्री = बदरिकाश्रम में । कै बारू = कई बार । अलकपुर = अलकापुरी । ब्रह्मावति = कोई नदी । करसी = करीषाग्नि में; उपलों की आग में । हाँडि फिरिउँ = छान डाला, ढूँढ डाला, टटोल डाला ।

(6) राज पगलागे = राजा ने प्रणाम किया । न केऊ = पास में कोई न रह जाय । लेइ गएउ = लेने या भोगने गया । सुखदेऊ = सुख देनेवाला तुम्हारा प्रिय । दिल्ली नावँ = दिल्ली या ढिल्ली इस नाम से ।सुठि = खूब । कीली = कारागार के द्वार का अर्गल । अबहुँ कया नहिं जीउ = अब भी मेरे होश ठिकाने नहीं ।

(7) माया = मया, दया ।

(8) फिरि माँगू = जाओ, और जगह घूम कर माँगो । सवाँग = स्वाँग, नकल, आडंबर । यह बड....सहना = वियोग का जो सहना है यही बडा भारी योग है । जेहुँ = जैसे, ज्यों, जिस प्रकार । तेहुँ = त्यों , उस प्रकार । सिंगी साँसा = लंबी साँस लेने को ही सिंगी फूँकना समझो । गटा = गटरमाला । रहै प्रेम....गटा = जिसमें उलझा हुआ मन है उसी प्रेम को गटरमाला समझो । छाला = मृगछाला । तँत = तत्त्व या मंत्र । पाँचों भूत...होहीं = शरीर के पंचभूतों को ही रमी हुई भभूत या भस्म समझो । पँवरि पाँच पर रेहु = पाँव पर जो धूल लगे उसी को खडाऊँ समझ । अधारी = अड्डे के आकार की लकडी जिसे सहारे के लिये साधु रखते हैं । अधारी लेहु = सहारा लो ।