Last modified on 27 जुलाई 2013, at 16:38

किसी को देखते क्यूँ आह रोते / 'जिगर' बरेलवी

सशुल्क योगदानकर्ता २ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:38, 27 जुलाई 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार='जिगर' बरेलवी }} {{KKCatGhazal}} <poem> किसी को दे...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

किसी को देखते क्यूँ आह रोते
जो बस चलता तो हम पैदा न होते

सहर होने को आई रोते रोते
कहीं वो आस्ताँ मिलता तो सोते

झुकी जाती हैं आँखें बार-ए-ग़म से
किसी आग़ोश में सर रख के सोते

नज़र देखा किये उन की हमेशा
यही हसरत रही हम जाने खोते

‘जिगर’ हम हैं तो ख़ालिक़ भी है कोई
न होता कुछ अगर हम ही न होते