भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ज़ीस्त आज़ार हुई जाती है / अहमद नदीम क़ासमी

Kavita Kosh से
Pratishtha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 02:11, 25 अक्टूबर 2007 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अहमद नदीम काज़मी }} ज़ीस्त आज़ार हुई जाती है|<br> सांस तलव...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ज़ीस्त आज़ार हुई जाती है|
सांस तलवार हुई जाती है|

जिस्म बेकार हुआ जाता है,
रूह बेदार हुई जाती है|

कान से दिल में उतरती नहीं बात,
आैर गुफ़्तार हुई जाती है|

ढल के निकली है हक़ीक़त जब से,
कुछ पुर-असरार हुई जाती है|

अब तो हर ज़ख़्म की मुंहबन्द कली,
लब-ए-इज़हार हुई जाती है|

फूल ही फूल हैं हर सिम्त 'नदीम',
राह दुश्वार हुई जाती है|