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अंतर्दाह / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

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किसलिए टूटी कितनी आस,
हुआ क्यों सुख में दुख का वास;
बतला दे होलिके! कहाँ वह गया मनोहर हास।
किसी का छिना भाल-सिंदूर,
किसी का टूटा सुंदर हार;
किसी का गया सुधा-सर सूख,
किसी का लुटा स्वर्ण संसार।
क्या इससे ही भूल गयी तू अपना सरस विलास।
नेत्र कितने हैं ज्योति-विहीन,
उरों से बही रुधिर की धार;
सरस भावों के मंजुल कंज,
जल गये पड़े प्रपंच-तुषार।
इसीलिए क्या नहीं हो सका तेरा ललित विकास।
लालसाएँ हो चलीं विलीन,
रसातल है जा रही उमंग;
पड़ा रसमय रुचियों का काल,
है लहू-भरी विनोद-तरंग।
कैसे तो न लुप्त हो जाता तेरा नव-उल्लास।
बन गया है हित के प्रतिकूल
परम विकराल काल का कोप;
जाति-जीवन है विदलितप्राय,
हुआ जातीय भाव का लोप।
कैसे तो न धूल में मिलता सुख-कल्पित-कैलास।