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मुस्कुरा कर आशिक़ों पर मेहरबानी कीजिए / 'सिराज' औरंगाबादी
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मुस्कुरा कर आशिक़ों पर मेहरबानी कीजिए
बुलबुलों की पास-ए-ख़ातिर गुल-फ़िशानी कीजिए
इश्क़ ने अज़-बस दिया है ज़र्द-रंगी का रिवाज
अर्ग़वानी आँसुओं कूँ जाफ़रानी कीजिए
मय-कश-ए-ग़म कूँ शब-ए-महताब है मू-ए-सफेद
मौसम-ए-पीरी में सामान-ए-जवानी कीजिए
हिज्र की रातों में लाज़िम है बयान-ए-ज़ुल्फ़-ए-यार
नींद तो जाती रही है क़िस्सा-ख़्वानी कीजिए
यार-ए-जानी तो ज़माने में निपट कम-याब हैं
कीजिए दुश्मन अगर अपना तो जानी कीजिए
मत हो ऐ दिल तूँ सदा बुलबुल हज़ारों फूल का
एक बाक़ी बूझिए बाक़ी कूँ फ़ानी कीजीए
सब समंदर मुत्तफ़िक़ हो मुझ कूँ कहते हैं ‘सिराज’
शोला-रू के वस्फ़ में आतिश-बयानी कीजिए