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यार जब मेरी तरफ़ आने लगा / 'सिराज' औरंगाबादी
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यार जब मेरी तरफ़ आने लगा
दिल की बे-ताबी सीं जी जाने लगा
गुल-बदन ने दिल लिया यक-रंग हो
फिर तो कई कई रंग दिखलाने लगा
दिल नहीं है बल्के है सूली का फूल
दूसरा मंसूर कहलाने लगा
हूँ तिरे अब्र-ए-करम का तिश्ना-लब
आग का मेंह क्यूँ बरसाने लगा
बात के कहते में वो शीरीं-दहन
तल्ख़ हो कर हौल बतलाने लगा
ज़ुल्फ़ खोला जब कहा मैं शब-ब-ख़ैर
शुक्र-लिल्लाह पेच कूँ पाने लगा
यार ने देखा कि जलता है ‘सिराज’
रहम उस के हाल पर लाने लगा