Last modified on 12 अगस्त 2013, at 10:30

खिली थी, झर गई बेला / देवेन्द्र कुमार

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 10:30, 12 अगस्त 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=देवेन्द्र कुमार }} {{KKCatNavgeet}} <poem> खिली थ...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

खिली थी
झर गई बेला ।

तुम्हारे प्यार के पाँवों पड़ी
अब तर गई बेला
खिली थी
झर गई बेला ।

हवा का
लाँघकर चौखट चले आना,
रोशनी का
अन्धेरे में फफकना,
फूटकर बहना
पड़ा रहना
बिला जाना

बताता है
कि किन मजबूरियों में
मर गई बेला
खिली थी
झर गई बेला ।