भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
चाँद-किरण / देवेन्द्र कुमार
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:32, 12 अगस्त 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=देवेन्द्र कुमार }} {{KKCatNavgeet}} <poem> रूठो म...' के साथ नया पन्ना बनाया)
रूठो मत प्रान ! पास में रहकर
झरती है चाँद-किरन
झर... झर... झर... ।
सेनुर की नदी, झील इँगुर की,
माथे तुम्हारे तुम सागर की
चूड़ी-सी चढ़कर कलाई पर
टूटो मत प्रान ! पास में रहकर
झरती है चाँद-किरन
आँखों की शाख, देह का तना,
टप्-टप्-टप् महुवे का टपकना,
मेरे हाथों हल्दी-सी लगकर,
छूटो मत प्रान ! पास में रहकर
झ्गरती है चाँद-किरन
झर... झर... झर...।
एक घूँट जल हो तो पिए,
कब तक कोई छल में जीए,
टूटे समन्दर ठूठे निर्झर,
दो मत तुम प्रान, पास में रहकर
झरती है चाँद-किरण
झर... झर... झर...।