भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सारा दिन / देवेन्द्र कुमार

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:19, 12 अगस्त 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=देवेन्द्र कुमार }} {{KKCatNavgeet}} <poem> सारा द...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सारा दिन पक्षी-सा भटके
शाम हुई डालों से अटके ।

अन्धकार ने कि जुगाली
सूरज ने ये धूप उठा ली
लगा कि ये तारों के लटके ।

ये बादल
बन ये तन्हाई
पुरवा-पछवा की
महँगाई
दोस्त ये दुभाषिए निकट के ।

आँखों में
बाहों में
भर लें
मौसम को
मनोनीत कर लें
चाँद कभी आए तो
छँट के ।