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जाड़े की धूप-1 / नन्दकिशोर नवल

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गोरे स्तनों-सी
उभरी हुई यह धूप
जिस पर गाल रख
सोया रहूँ मैं देर तक,
जब तक न डूबे दिन,
न उतरे साँझ ।

21.2.1962