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मुफ़्त दुश्नाम-ए-यार सुनते हैं / 'रशीद' रामपुरी

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मुफ़्त दुश्नाम-ए-यार सुनते हैं
एक कह कर हज़ार सुनते हैं

तुम हिमायत करो न ग़ैरों की
चार कहते हैं चार सुनते हैं

हम फ़िदा-ए-चमन क़फ़स में भी
ज़िक्र-ए-फ़स्ल-ए-बहार सुनते हैं

कुछ तो बात जो तिरे मुँह से
सुख़न-ए-ना-गवार सुनते हैं

आप और आएँ अपने वादे पर
ऐसे फ़िक़रे हज़ार सुनते हैं

उस से मिलने को दिल तड़पता है
हम जिसे बे-क़रार सुनते हैं

हम तग़ज्जुल में आज तुझ को ‘रशीद’
हासिल-ए-रोज़गार सुनते हैं