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शर्मिंदा किया जौहर-ए-बालिग़-नज़री ने / 'वहशत' रज़ा अली कलकत्वी
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शर्मिंदा किया जौहर-ए-बालिग़-नज़री ने
इस जिन्स को बाज़ार में पूछा न किसी ने
सद शुक्र किसी का नहीं मोहताज-ए-करम मैं
एहसान किया है तिरी बे-दाद-गरी ने
मोहताज थी आईने की तस्वीर सी सूरत
तस्वीर बनाया मुझे महफ़िल में किसी ने
गुल हँसते हैं ग़ुंचे भी हैं लबरेज़-ए-तबस्सुम
क्या उन से कहा जो के नसीम-ए-सहरी ने
मायूस न कर दे कहीं उन की निगह-ए-गर्म
उम्मीद दिलाई है मुझे सादा-दिली ने
मेहनत ही पे मौक़ूफ़ है आसाइश-ए-गेती
खोई मिरी राहत मिरी राहत-तलबी ने
‘वहशत’ मैं निगाहों के तजस्सुस से हूँ आज़ाद
एहसान किया मुझ पे मिरी बे-हुनरी ने