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प्रमाणपत्र को ठेंगा / कुमार सुरेश

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== प्रमाण पत्र को ठेंगा

उस शहर से जहां नौकरी
तीज-त्यौहार पर
या किसी और वक्त
लौटता हँू उस शहर
जहाँ एक स्त्री
मेरे आने भर से
खुश हो जाती है बेशर्त
बूढी ओखों की चमक देखते बनती है
बीमारियों और कष्टों की झुर्रियों को भेद
छलकने लगती है उसकी खुशी

चाहती है केवल इतना
कुल पल बैठ लँू उसके पास
वह पूछे मुझसे
इतना कमजोर क्यों हुआ
अच्छे से खाता पीता नहीं
बहू कैसी है क्यों नहीं लाया उसे
मेरे आज ही लौटने की बात सुनकर
मनुहार करती है
एक दिन और रूक जा
चले जाना कल

उसके पास बैठते ही
उमग आता है भीतर
सुकून का एक टापू
जहाँ सुस्ताता हँू कुछ पल

लोटने पर उस शहर में जहां
रोज सिद्ध करना हेाता है खुदको
जहाँ हर योद्धा अभिशप्त है
गलातार लडने गिरने
फिर भुला दिये जाने को
रहता हँू आश्वस्त
चाहे सिद्ध न कर पाउँ अपने आप को
मेरा भी मूल्य है
हर प्रमाण पत्र को ठेंगा दिखाते हुएा

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