दुख / मिथिलेश श्रीवास्तव
किसी सन्नाटे की ओर अक्सर धूप के सहारे
निकलते हुए मैंने उसे देखा है
एक छलाँग में नाले को पार करने के पहले
वह नहीं भूलती
क़ागज़ के बिखरे टुकड़ों को बीनना
और दुनिया भर के दुख अपनी पीठ पर उठाए
झुक जाना
मोहम्मद अली के माँसल शरीर को
एक बार ग़ौर से वह देखती है
फिर मोड़कर मसलकर झोले में रख लेती है
चोली के एक विज्ञापन को भी वह ग़ौर से देखती है
और अपने स्तनों को छूती है
हत्यारों और बलात्कारियों के चेहरे उसे नहीं डरा पाते
वह न जाने कितने बलात्कारियों के चेहरे
रद्दी के मोल बेच चुकी है कबाड़ी के हाथों
पढ़ना जानती तो वह ज़रूर पढ़ लेती
यात्राओं में शुभ प्रेम में सफल व्यवसाय में मुऩाफा
होने के राशि-फलों के मुरझाए स्तम्भ
पढ़ना जानती तो
डायरी के एक पन्ने के बिखरे टुकड़ों पर
एक युवक का लिखा अफ़सोस पढ़ लेती
कि लोग उसे याद नहीं रखते
एक नए सिरे से हर बार उसे देना पड़ता है
अपना परिचय
पढ़ना जानती तो जान लेती
कुछ लोग कुछ चिट्ठियां पढ़कर फाड़ देते हैं
टुकड़ों से ज़ाहिर है
बहुत सी स्मृतियाँ यहाँ महफ़ूज़ नहीं
कई पुर्ज़ों पर महीने भर के ख़र्च का हिसाब
कई बार लिखकर काट दिया गया है
फीकी पड़ गई स्याही की पँक्तियों को देखकर
कोई भी कह सकता है
घर लिखे हुए हिसाब से नहीं चलता
लावारिस पड़ी चीज़ों को बेफ़िक्री़ से उठाती
अपनी बेजान-सी पीठ पर वह चली जाती है
जैसे धूप।