पहुँचना / सुरेश सेन निशांत
मैं चाहता हूँ पहुँचना
तुम्हारे पास
जैसे दिन भर
काम पे गई
थकी माँ पहुँचती है
अपने नन्हे बच्चे के पास ।
सबसे क़ीमती पल होते हैं
इस धरती के वे
उसी तरह के
किसी क़ीमती पल-सा
पहुँचना चाहता हूँ तुम्हारे पास ।
मैं चाहता हूँ पहुँचना
तुम्हारे पास
जैसे बरसों बंजर पड़ी
धरती के पास पहुँचते हैं
हलवाहे के पाँव
बैलों के खुर
और पोटली में रखे बीज
धरती की खुशियों में उतरते हुए
मैं पहुँचना चाहता हूँ तुम्हारे पास ।
मैं चाहता हूँ
बारिश के इस जल-सा
धरती की नसों में चलते-चलते
पेड़ों की हरी पत्तियों तक पहुँचूँ
फलों की मुस्कुराहट में उतरूँ
उनकी मिठास बन
तुम्हारे ओंठों तक पहुँचना चाहता हूँ ।
अँधेरे घर में
ढिबरी में पड़े तेल-सा
जलते हुए
तुम्हारे साथ-साथ
अँधेरे से उजाले तक का
सफ़र तय करना चाहता हूँ ।
निराशा भरे इस समय में
मैं तुम्हारे पास
संतों के प्रवचनों-सा नहीं
विज्ञापनों में फैली
व्यापारियों की चिकनी भाषा-सा नहीं
मैं कविता की गोद में बैठी
किसी सरल आत्मीय पंक्ति-सा
पहुँचना चाहता हूँ ।
मैं चाहता हूँ
मैं पहुँचूँ तुम्हारे पास
जैसे कर्ज़े में फँसे
बूढ़े किसान पिता के पास
दूर कमाने गए
बेटे का मनीऑर्डर पहुँचता है ।
आँखों में ख़ुशी के आँसू छलकता
एक उम्मीद-सा
मैं पहुँचना चाहता हूँ
तुम्हारे पास
तुम्हारे हाथों में
तुम्हारी आँखों में ।