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रघुवंश / मिथिलेश श्रीवास्तव

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सुबह-सुबह कमीज़ का बटन लगाते
काज और बटन का मेल अक्सर नहीं बैठता
बार-बार बटन खोलना और लगाना पड़ता है
दूसरे काज का बटन तीसरे काज में लग जाता है
तीसरे का चौथे में
जूते का फ़ीता ढीला रह जाता है
जिसके कसने के लिए
रुकना और झुकना पड़ता है रास्ते में
छट गये लंच-बक्स के लिए
एक बार घर फिर लौटना पड़ता है
रघुवंश अपनी घड़ी को
समय से दस मिनट आगे रखता है

ठसाठस भरी बस में सफ़र करते हएु
उसे कोफ़्त नहीं होती
जब एक सीट भर के लिए
जोर-आजमाइश और तनातनी शुरू होती है
एक आदमी दसरे आदमी को धकिया देता है
जरा-से आराम के लिए
रघुवंश को सबसे सहज लगता है
घड़ी देखने में व्यस्त हो जाना। वह समझ नहीं पाता
वर्षों जो नहीं हो पाया
कुछ महीनों में कैसे हो पाएगा
अख़बार के माध्यम से की गईं तमाम घोषणाएँ
समय-बम की तरह लगती हैं
खिड़की से टकराकर रघुवंश का सिर चकराता है
जैसे समय बम की तरह फट पड़ा हो एकाएक
लगातार घड़ी देखता रघुवंश
दफ़्तर पहुँच कर देखता है
दफ़्तर की रुकी हई घड़ी ।