खुलल आँख, सपना सब टूटल, फूट गइल रस-गगरी,
भरल-पुरल जग में उजाड़ अगसरुआ मन के नगरी !
पाँव जथारथ के धरती पर लागल थर-थर काँपे,
के अपना सुख के अँजुरी से अनका दुख के नापे,
जब-जब भोर भइल चाहल भा किरिन तनिक मुसुकाइल
अवचक माथा पर आ धमकल घोर जमुनिया बदरी !
फूट गइल रस-गगरी !
लाख जतन के बाद न पूरल सोचल मन के बतिया,
उज्जर दिन करतब के करिखा, हो जाला करिआ,
साँझ लुटा के सरबस जोहेला बिहान के रसता
कबले बान्हीं तोख देख के हम माटी के दिअरी ?
फूट गइल रस-गगरी !
कोख फुलाइल ना रेती के करखा मारे नदिया,
धाँती से कुछ दूर दूभ से अकवन पूछे गतिया,
मउसम के संग दिन बदलेला, दिन के संग ई दुनिया
सुबुकि हवा धीरे से बोलल-’सब दू दिन के रगरी’ !
फूट गइल रस-गगरी !
सवन, अगहन रास न आइल, झोंकल जेठ अडोरा,
बिन पिआर घुमल ई जिनगी रितु के कोरा-कोरा,
सोनजुही-गेना-गुलाब पर हँस फुलाइल सरसों-
देखि कचोटल जिअरा, माँगल-हरदी लीपल पिअरी ।
फूट गइल रस-गगरी !
माड बहोरे रोज सुहागिन, रोज उठावे अँचरा,
बसिआ फूल बटोरे केहू, बहे लोर संग कजरा,
इहे लेख विधना के केहू थपड़ी पारे, गावे,
केहू आपन भाग निहारे ए दुअरी-ओ दुअरी ।
फूट गइल रस-गगरी !