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जिनिगी / राधामोहन चौबे 'अंजन'

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हिम्मत मन में, बल बाँहिन में, यारी रहे जवानी से।
मरद उहे ह जे लड़ि जाला, आन्ही से आ पानी से।।

सागर में तूफान उठेला, झंझा भरल बयार चले
उड़े पाल ‘हैया-रे-हैया’ माँझी के पतवार चले
गरजे बादर, चमके बिजुरी, आसमान फाटे लागे
उड़े पाल ‘हैया-रे-हैया’ माँझी के पतवार चले
गरजे बादर, चमके बिजुरी, आसमान फाटे लागे
उठे ज्वार करिया नागन जस, फन काढ़े लागे
‘हैया ! हैया, तूँ ही खेवइया’, अरजी औढ़रदानी से।।

जेकरे बल से जिनगी जीये, उहे सहारा उठि जाला
जवने घाटे खड़ा मुसाफिर, उहे किनारा लुटि जाला,
जेकरे संग में जनम-मरन के कसम लोग हरदम खाला,
ऊहे संगी दूर कहीं जब, आँखिन से अलगा जाला,
सीप नयन के मोती उपजे, गुजरल मधुर कहानी से।।

जिनगी ह संग्राम, हवे वरदान, हवे अनजान
शोक-दर्द ह खेल-तमासा, करतब ह ई जादूगर
ई रहस्य ह, मधुगीत ह, मौका ह कठिनाई के
प्यार कर जिनगी से भइया, हिम्मत का आसानी से।।

मरदे पर कि बरधे पर, संकट के बादल बरसेला
अग्नि-परीक्षा से धरती के, छाती ज्यादे हरसेला
आफत ह पतझार उठत बा फागुन के जे दूत पवन
समझीं कि आ रहल बहुत जल्दी सुख के सावन
अँकवार में भरि के चूमबि सुख सपना मनमानी से।।

आँखि हवे सनकाहिन, एकरा के कहीं मत जाये दीं
जाई त अझुरा जाई, ना मानी, मति बऊराये दीं
के ‘अंजन’ जिनगी भर राखी रही सिंगार जवानी भर
उमर ढले पर हँसी जमाना, क्षेपक बीच कहानी पर
ले ल दिल उपहार प्यार के, अपने अमर निशान से।।