भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
नारियल के दरख़्तों की पागल हवा / बशीर बद्र
Kavita Kosh से
Pratishtha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 03:10, 10 नवम्बर 2007 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=बशीर बद्र }} नारियल के दरख़्तों की पागल हवा खुल गये बाद...)
नारियल के दरख़्तों की पागल हवा खुल गये बादबाँ लौट जा लौट जा
साँवली सरज़मीं पर मैं अगले बरस फूल खिलने से पहले ही आ जाऊँगा
गर्म कपड़ों का सन्दूक़ मत खोलना वरना यादों की काफ़ूर जैसी महक
ख़ून में आग बन कर उतर जायेगी सुबह तक ये मकाँ ख़ाक हो जायेगा
लान में एक भी बेल ऐसी नहीं जो देहाती परिन्दे के पर बाँध ले
जंगली आम की जान लेवा महक जब बुलायेगी वापस चला जायेगा
मेरे बचपन के मन्दिर की वह मूर्ति धूप के आसमाँ पे खड़ी थी मगर
एक दिन जब मिरा क़द मुकम्मिल हुआ उसका सारा बदन बर्फ में धँस गया
अनगिनत काले काले परिन्दों के पर टूट कर ज़र्दबानी को ढकने लगे
फाख़ता धूप के पुल पे बैठी रही रात का हाथ चुपचाप बढ़ता गया