Last modified on 8 अक्टूबर 2013, at 13:27

मुसाफ़िरों में अभी तल्ख़ियाँ पुरानी हैं / सब्त अली सबा

सशुल्क योगदानकर्ता ३ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:27, 8 अक्टूबर 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सब्त अली सबा }} {{KKCatGhazal}} <poem> मुसाफ़िरो...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

मुसाफ़िरों में अभी तल्ख़ियाँ पुरानी हैं
सफ़र नया है मगर कश्तियाँ पुरानी हैं

ये कह के उस ने शजर को तने से काट दिया
कि इस दरख़्त में कुछ टहनियाँ पुरानी हैं

हम इस लिए भी नए हम-सफ़र तलाश करें
हमारे हाथ में बैसाखियाँ पुरानी हैं

अजीब सोच है इस शहर के मकीनों की
मकाँ नए हैं मगर खिड़कियाँ पुरानी हैं

पलट के गाँव में मैं इस लिए नहीं आया
मिरे बदन पे अभी धज्जियाँ पुरानी हैं

सफ़र-पसंद तबीअत को ख़ौफ़-ए-सहरा क्या
‘सबा’ हवा की वही सीटियाँ पुरानी हैं