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आज के सन्दर्भ में कल / प्रताप सहगल

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सड़कों पर घूमते हुए एकलव्य
खोज रहे हैं द्रोण को
और द्रोण न जाने किन अन्धी गुफाओं में
या यूतोपियाई योजनाओं में खोया हुआ खामोश है.

लाखों एकलव्य अपनी-अपनी पीड़ा ढोते हुए
प्रकाश किरणों को पकड़ने का करते हैं प्रयास
और रोशनी के किसी भी स्तूप को नोच लेते हैं.
मिनियेचर ताजमहलों को
अपने हाथों में दबाए
समुद्र-पार के देशों की ओर करते हुए संकेत
शान्ति यात्राओं में लोट आते हैं
विस्फोटक पदार्थ से भरे हुए हाथों सहित
मेरे देश के एकलव्य
द्रोण की खोज में
और द्रोण न जाने किन दिशाओं में खो गया है.

कल आज में परिवर्तित
होने वाला है कल
चक्राकार घूमता हुआ ग्लोब
चपटियाता हुआ भी चक्रबद्ध रहेगा
आलोक स्तम्भ बुझ जाएगा
किसी मनु की प्रतीक्षा में

और मेरे देश के एकलव्यों को
तब भी ज़रूरत होगी द्रोण की
और द्रोण न जाने किन अतल गहराइयों में सिमट जाएगा.