माथे जलता सूरज / प्रेम शर्मा
(प्रथम प्रकाशित रचना)
माथे पर
जलता सूरज ले,
सारी उम्र
गँवा आया हूँ
जिस दिन
साँझ ढलेगी मेरी,
अनबुझ
दिया
जला जाऊँगा |
फूलों की
घाटी से यूँ तो
कोई भी सम्बन्ध नहीं है,
लेकिन
इसका अर्थ नहीं यह
मेरा मन स्वच्छन्द नहीं है,
हाथों में
रीता पतझर ले
हरसिंगार लुटा आया हूँ,
जिस दिन
गंध उड़ेगी मेरी,
वन
उपवन
महका जाऊँगा |
ओस चाटकर
जीने वाले,
भावों को निष्प्राण कर गए,
आकाशी
सूनापन देकर
रतनारे विश्वास मर गए,
होंठों पर
संदली प्यास ले
गंगाजल ठुकरा आया हूँ,
जिस दिन
तपन मिटेगी मेरी
हर सन्ताप मिटा जाऊँगा ।
रंगों पर
तैरता हुआ-सा
मन का दर्द
उभर उठता है,
नींद भरी
पलकों में जैसे
कोई स्वप्न
सिहर उठता है,
आँखों में
बीमार रात ले,
सपनों को
बहला आया हूँ,
जिस दिन
साँस थकेगी मेरी,
स्वर्णिम
प्रात जगा जाऊँगा ।
(कादम्बिनी, जनवरी, १९६२)