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भीड़ में खोया हुआ गाँधी / प्रताप सहगल

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एक दाहिनी भीड़ है
एक भीड़ बाईं है
और भीड़ अपने आप में सिर्फ है भीड़
गाँधी जो एक व्यक्ति था
वह भी भीड़ हो गया
और भीड़ के संकीर्ण स्वरों में बन्द
टूटे तारों में छिपा गाँधी
गाँधी न रहा
भीड़ फिर भी रही भीड़
तीव्र हिंसा के स्वर
उभरते रहे अहिंसात्मक आन्दोलन की पृष्ठभूमि में
अहिंसा जो एक असफल प्रयोग है
दम्भ है मानवीय वृत्तियों को एक दायरे में बांधने का
और उपहास है बढ़े हुए नाखूनों का.
रक्त और मज्जा से निमज्जित नाखूनों ने
अहिंसा के मुख पर कर दिए हैं गहरे घाव
और व्यक्ति-प्रतिष्ठा के प्रश्नों को गहरा दिया है.
खण्ड-खण्ड अस्तित्व के संघर्ष ने
हमें गाँधी से अलग कर
एक चौराहे पर फ़ेंक दिया है
उस चौराहे से निकल रही हैं
अलग-अलग ध्वनियाँ
बेसुरे अलाप
या वहाँ राजनीति के चन्द मोहरे
गाँधीवाद का ढक्कन उठाकर
उस पर लगा देते हैं अपना ट्रेडमार्क
और फिर हमें समझाने का करते हैं प्रयास
एक ग़ैर ज़रूरी प्रयास.
युवा-पीढ़ी के मसीहा कहलाने के शौकीन
हर स्थिति से करते हैं इन्कार
और जोड़ देते हैं अपनी हर बात के साथ
'बापू ने कहा था'
मित्रो! गांधी जो एक बीज था
उसकी कट चुकी है फसल
आज भूमि खाली है
उर्वरा भूमि में बीजों का अभाव
सूखा और अतिवृष्टि की चर्चाएं
दमघोटू वातावरण को ओर गम्भीर बनाकर
समस्त देश को निगल लेती हैं
और फिर किसी रेस्तराँ के कोने में बैठकर
करती है भयंकर अट्टहास.
सुबह अखबार उन्हें गा-गाकर सुनाते हैं
और हर व्यक्ति लुँज-पुँज होकर
अखबार को ओढ़ लेता है
उसी का लेता है आहार (काफी हल्का आहार)
और गाँधी के संकल्पों को दोहरा-दोहरा कर
किसी भी भीड़ में
शामिल हो जाता है.