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धर्म-ग्रन्थ / शशि सहगल

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रात मैंने एक सपना देखा
जाने क्यों
दिन में बारह बजे भी
मैं
परेशान हूँ
छूट नहीं पाता दंश
काँटे-सी वह कसक

जानते हैं मैंने क्या देखा?
रैक पर पड़ी मेरी सभी पुस्तकें
नीचे गिर रही हैं।
नहीं
गिर नहीं रहीं
गिरायी जा रही हैं।
हर मोटी किताब
पतली को
विद्रूपता से हँसती हुई
गिरा देती है नीचे
और
अभी तक पढ़े सभी 'वाद'
सिद्धान्त
हाथों में छुरे लिये हुए
खुद को बड़ा साबित करने की
कोशिश में हैं.
बीच बचाव करती हुई मैं
लहूलुहान होती जा रही हूँ।
यह क्या !
मेरे लाल खून पर
यह काला ज़हरीला खून!
चौंक उठी मैं
ऊपर देखा
धर्मग्रन्थ ज़हर उगल रहा था।