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नियति / शशि सहगल
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पेड़ की आड़ी-तिरछी परछाईं
हर रोज़
आँगन के कोने से शुरू होकर
फैल जाती है पूरे फर्श पर
सरकती-सी चढ़ती है
दीवार के ऊपर
कितना हास्यास्पद है
रोज़
एक ही तरह से ज़िन्दगी जीना।