Last modified on 21 अक्टूबर 2013, at 00:31

आप तरे त्याकी कोण बराई / संत तुकाराम

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:31, 21 अक्टूबर 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=संत तुकाराम |अनुवादक= |संग्रह= }} <poem> ...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

आप तरे त्याकी<ref>उसकी</ref> कोण<ref>कौन सी</ref> बराई<ref>बड़प्पन</ref> । औरन कु भलो नाम धराई ।।धृ०।।
काहे भूमि इतना भार राखे । दुभत<ref>दूध देना</ref> धेनु नहिं दूध चाखे ।।१।।
बरसते मेघ फलते है बिरखा<ref>वृक्ष, पेड़</ref> । कौन काम आपनी उन्होति<ref>उनके लिए</ref> रखा ।।२।।
काहे चन्दा सुरज खावे फेरा<ref>चक्कर काटना</ref> । खिन<ref>क्षण</ref> एक बैठ न पावत घेरा<ref>घूमना</ref> ।।३।।
काहे परिस<ref>पारस</ref> कंचन<ref>सुवर्ण</ref> करे धातु । नहिं मोल तुटत पावत धातु ।।४।।
कहे तुका उपकार हि काज । सब कर रहिया रघुराज<ref>ईश्वर</ref> ।।५।।

भावार्थ :
जो मनुष्य केवल अपना ही व्यक्तिगत उद्धार कर लेता है, उसका कौन सा बड़प्पन है इसमें ? दूसरों के लिए जो जीता है, वही भला कहलाता है। भूमि किसलिए दूसरों का इतना भार धारण करती है? अर्थात वह दूसरों के लिए स्वयं कष्ट सहती है। गाय अपने लिए दूध न रखकर दूसरों को दूध देती है। मेघ अपने लिए पानी न रखकर दूसरों के लिए बरसते हैं। इसी प्रकार वृक्ष दूसरों को अपने फल का दान करते हैं। चन्द्र और सूर्य एक क्षण भी विश्राम न लेते हुए दिन-रात चक्कर काटते रहते हैं। लोगे को पारस स्वर्ण रूप बना देता है, उसे वह अपने लिए नहीं रखता है। इस प्रकार तुकाराम कहते हैं कि सभी दूसरों के लिए जीते हैं, यही रघुराज (ईश्वर) की लीला है। अत: हमें भी इस रहस्य को समझकर दूसरों के हित जीना चाहिए ।

शब्दार्थ
<references/>