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उलाहना / अज्ञेय

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नहीं, नहीं, नहीं !


मैंने तुम्हें आँखों की ओट किया

पर क्या भुलाने को ?

मैंने अपने दर्द को सहलाया

पर क्या उसे सुलाने को ?


मेरा हर मर्माहत उलाहना

साक्षी हुआ कि मैंने अंत तक तुम्हें पुकारा !


ओ मेरे प्यार ! मैंने तुम्हें बार-बार, बार-बार असीसा

तो यों नहीं कि मैने बिछोह को कभी भी स्वीकारा ।


नहीं, नहीं नहीं !