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जब से चक्षु मिलन हुआ तुमसे / तारा सिंह

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जब से चक्षु मिलन हुआ तुमसे, तबसे

खींची सोती हूँ तुम्हारे आकुल आकर्षण में

भूल गई मैं निज कर्म को, रहने लगी तुम्हारे

चिन्तन में पुलकित होकर, आँखें बंदकर

तन्द्रा को बुलाती हूँ सपनों में, इठलाती

सोती - जागती हूँ, तुम्हारी मृदु बाँहों में


उदित हो रहा दिवाकर को देखती हूँ जब नभ में

लगता तुम वसुधा का सार लिए बढते आ

रहे हो मेरी ओर, और कह रहे हो, देह कांति

पीतिमा युक्त होती, यह नहीं गति-पद के वश में

तुम्हारे इस प्रणय निमंत्रण को पाकर, डूब जाती मैं

चिंता की लहर में,सहस्त्रॉं सर्प रेंगने लगते जहन में

मैं वेदना विह्वल हो जाती, निहारती तुमको मन में


मुक्त विहरणेवाली दिगंतव्यापिनी चंद्रिका को

जब सो जाती चाँद के आकुल बाँहों में

मलयानिल बनकर तुम आ रहे हो, मुझको अपने

आलिंगन में भरने ,तन की शिराएँ सभी जाग जातीं

रस भर प्रफुल्ल सुमन धीरे –धीरे बरसने लगता

लेकिन अंतर में उठता जब यह प्रश्न भयानक,जीवन

का करुणांक कथानक, यहीं शेष हो जायेगा क्या


तब लगता क्या होगा इस मृत्ति आकाश में ठहरकर

जहाँ पंखहीन-सी पड़ी रहती कल्पना, मकड़ी जाल में

उषा के मयंक में निराशा रहती भरी, वायु निस्तब्ध

अलस बन सोई रहती, चलती न बयार भुवन में

ऐसे में भला मेरी भावुकता के राग को कौन सुनेगा

कौन समझेगा, आलिंगन का सुख मुझे क्यों तीरता रहता

क्यों गिरकर पुनः खत्म हो जाता, अपने ही निश्वासों में