भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मैं अच्छा फ़न-कार नहीं / ज़ाहिद इमरोज़

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ३ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:08, 24 अक्टूबर 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=ज़ाहिद इमरोज़ }} {{KKCatNazm}} <poem> परिंदे मु...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

परिंदे मुझ से दाना नहीं
अपनी मासूमियत ज़िंदा रखने के लिए
हिजरत कर जाते हैं
लोमड़ियाँ अपना दुश्मन पहचान लेती हैं
भेड़ें अपनी ऊन से ख़्वाब बुनती रहती हैं
लोग अपने मालिकों की लानत समेट कर भी
उन के क़दम मापते रहते हैं

जैसे भी हो
ज़िंदा रहना एक फ़न है
ज़िंदगी के खेल में अब तक
मैं इज़ाफ़ी किरदार ही रहा हूँ
जिसे कभी भी खेल-बदर किया जा सकता है