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परंपरा में / सविता सिंह

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दूर तक सदियों से चली आ ही परंपरा में
उल्लास नहीं मेरे लिए
कविता नहीं
शब्द भले ही रोशनी के पर्याप्त रहो हों औरो के लिए
जिन्होंने नगर बसाये हों
युद्ध लड़े हों
शब्द लेकिन छिपकर
मेरी आँखों में धुँधलका ही बोते रहे हैं
और कविता रही है गुमसुम
अपनी परिचित असहायता में
छल-छद्म से बुने जा रहे शब्दों के तंत्र में
इस नगरों के साथ निर्मित की गयी एक स्त्री भी
जिसकी आत्मा बदल गयी उसकी देह में

दूर तक सदियों से चली आ रही परंपरा में
वह ऊँचे ललाट वाली विदुषी नहीं
जो पैदा करे स्पर्द्धा
वह रही सभ्यता के तल में दबी
मधुमक्खियों सरीखी बुनती छत्ता
समझती उनकी संगठन कला को
प्रतीक्षारत वह रही
कि अगली बार बननेवाले नगरों में
काम आयेगी यक़ीनन उसकी यह कला
शब्दों के षड्यंत्र तब होंगे उसकी विजय के लिए
बनेंगे नये नगर फिर दूसरे
युद्ध और शांति पर नये सिरे से
लिये जायेंगे फ़ैसले